खूब लड़ी मर्दानी बनाम झलकारी बाई
झांसी की रानी की वीरगाथाओं और गुणगान करने वालों ने साहित्य में भी पक्षपाती रुख को अपनाया या ये कहूँ कि राजनीति का, धोखेबाज़ी का घटिया खेल खेलना और सर्वोच्चता का चस्का नहीं छूटा।1857 के विद्रोह में पूरे जोश से भाग लेने वाली और झाँसी की रानी के विशेष दल दुर्गा दल की सेनापति झलकारी बाई एक वीरांगना थी।वे भोजला गाँव के एक कृषक की साहसिक पुत्री थी। उनकी वीरता के किस्से गाँव में मशहूर थे। 1830 में जन्मी ये स्त्री कर्तव्य निष्ठा और अदम्य साहसकी प्रतिमूर्त थी।
“जय भवानी उनका नारा था।” जिससे वे अपनी सेना में साहस, उत्साह का संचार करती थीं।वे एक साहसी एवं धर्यवान, शौर्यवान, निर्भीक सेनापति थीं। इतिहास गवाह है कि जब तक सेनापति की जान में जान होती है वह राजा या रानी की अस्मिता पर आंच नहीं आने देता, ऐसा ही प्रण झांसी की रानी की जान की हिफाज़त के लिए रानी झलकारी बाई ने किया था। अंग्रेजों की सेना से युद्ध लड़ने और सिहासन के वारिश की जान की सुरक्षा की जिम्मेदारी का बीड़ा उठाते हुए उन्होंने रानी को वचन दिया था कि जब तक उनके शरीर में प्राण बाक़ी हैं वे अपनी सेना के साथ युद्ध लड़ेती रहेगी क्यों कि अंग्रेजों का लक्ष्य रानी और उनके दतक पुत्र अंग्रेजों थे जिन्हें मारकर या बंदी बनाकर वे उनकी झांसी पर अपना अधिपत्य स्थापित कर सकते थे किंतु वे वीरांगना झलकारी बाई और उनकी रणनीति, उनकी वीरता से वाकिफ नहीं थे. झलकारी बाई ने रानी को महल से सुरक्षित निकलने के लिए समय देने का दृढ निश्चय किया।
जब भयंकर युद्ध की स्थिति बनी तब झलकारी बाई ने लक्ष्मीबाई से स्वयं युद्ध लड़ने की अनुमति ली और उनका वेश धर वे मैदान में उतर गईं। लक्ष्मीबाई समझ अंग्रेज उनका पीछा करते रहे तथा वे अपनी तलवार से शत्रुओं के सिर कलम करती चली गईं।अंग्रेज सैनिक उनके पीछे पीछे उनको हारने के उद्देश्य से भागते रहे. अंत में घायल शेरनी झलकारी बाई जब धराशयी हुई उनका चेहरा देखा गया तो ज्ञात हुआ वे लक्ष्मीबाई नहीं, वीरांगना झलकारी बाई हैं। लेकिन इतिहास ने उन्हें कहीं स्थान देना उचित नहीं समझा या बहुत कुछ छिपाने और बचाने की फ़िराक में लिखना नहीं चाहा लेकिन उनकी पीढ़ियां उनके इतिहास पर यूँ गर्द नहीं चढने देगी। राष्ट्रभक्त, कर्तव्य परायण झलकारी बाई की वीरता की गाथा अमिट है।
डॉ राजकुमारी राजसी दिल्ली 






