सरनेम उपन्यास: स्त्री अस्तित्व की पहचान
डॉ. राजकुमारी द्वारा रचित उपन्यास ‘सरनेम’ एक गहन और मार्मिक सामाजिक दस्तावेज़ है, जो भारतीय महिलाओं की पहचान, स्वाधीनता और सामाजिक बंधनों के बीच की जटिलताओं को विस्तार से उजागर करता है। उपन्यास की नायिका अवंतिका की कहानी, जो पहली बार एक खुशहाल जीवन का सपना लेकर शादी करती है, जल्द ही आर्थिक, मानसिक और शारीरिक शोषण के काले सागर में डूब जाती है, दर्शाती है कि कैसे एक स्त्री का जीवन पारंपरिक पितृसत्ता के दंभ और नियंत्रण का सामना करता है। वैभव का व्यवहार कथानक को शक्ति शोषण का प्रतीक बनाता है – जहां अवंतिका की सैलरी, उसका शरीर, उसका नाम और सरनेम, सब कुछ पति के अधिकार में होता है।
उपन्यास में प्रकृति के सुंदर प्रतीकों जैसे गिलहरियों के जोड़े, मधुबनी पेंटिंग्स और रंगीन ड्रीम कैचर के माध्यम से कहानी की आंतरिक द्वंद्व को प्रदर्शित किया गया है। अवंतिका की मनःस्थिति, जब वह सोचती है कि मादा की पहचान होती है पर नर की नहीं, यह सामाजिक लिंग भेदभाव की सच्चाई पर प्रश्न उठाती है।
यही प्रतीकात्मकता उपन्यास के केंद्र में स्त्री की पहचान और सम्मान की व्यापक लड़ाई को दर्शाती है।
वह अपने दूसरे पति अभिनव के साथ नई शुरुआत करती है, परंतु सरकारी दफ्तरों के तिरस्कार और सामाजिक रूढ़िवादिता की दीवारों से जूझना जारी रहता है। नाम बदलने की जटिल प्रक्रिया और सरकारी कर्मचारियों की उपेक्षा, साथ ही परिवार और समाज की आलोचनाएं, अवंतिका की कहानी को सिर्फ व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामाजिक एवं कानूनी संघर्ष में बदल देती हैं। यहां तक कि माताओं का कथन, “स्त्री के अभिरक्षक बदलते हैं, पर उसकी स्वतंत्रता नहीं,” उपन्यास की सामाजिक सच्चाई को उद्घाटित करता है।
राजकुमारी की बेहतरीन लेखनी में भावनात्मक व्यंजना और जीवन्त वर्णन उपन्यास को आत्मीयता प्रदान करते हैं। अवंतिका के होंठों की चॉकलेटी लिपस्टिक, उसकी सैलरी की रकम, और उसके मन के कष्ट पाठक के दिल को छू जाते हैं। उपन्यास इस बात पर जोर देता है कि वास्तविक स्वतंत्रता केवल नाम बदलने से नहीं आ सकती, बल्कि सामाजिक, मानसिक और कानूनी बदलाओं की आवश्यकता है।
‘सरनेम’ न केवल नायिका की दर्दभरी कहानी है, बल्कि महिलाओं के अधिकार, समानता और सम्मान की लड़ाई का प्रतीक है।
यह उपन्यास समाज में व्याप्त दहेज प्रथा, पितृसत्ता, न्यायिक जटिलताओं और सामाजिक कलंक पर प्रहार करता है। यह हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हमारे समाज में महिलाओं की स्वतंत्रता केवल कागजों में सीमित है, या वास्तव में वे अपने जीवन में स्वायत्तता महसूस कर पाती हैं।इस उपन्यास का संदेश स्पष्ट और जबरदस्त है: स्त्री की पहचान उसकी अपनी होनी चाहिए, न कि उसके पति के नाम पर टिकी। यह साहित्यिक और सामाजिक विमर्श के बीच की पुल है, जो हिंदी साहित्य के लिए एक मील का पत्थर साबित होगी। पढ़ते-पढ़ते पाठक अवंतिका के संघर्ष, उसकी आशाओं, बलिदानों और सशक्तिकरण की यात्रा से अवगत होकर स्वयं को उसकी जगह पाता है। यही कारण है कि ‘सरनेम’ आधुनिक भारतीय नारी विमर्श में अनिवार्य पठनीय है।
राजेश चाँदवरिया






