Monday, November 24, 2025
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घर-घर कोई खेल नहीं…

घर-घर कोई खेल नहीं…

संवेदना से भरी ये लड़कियां कितनी अलबेली, अनूठी होती हैं। अपने जन्मस्थान में वे एक सकारात्मक जीवन दृष्टि लिये जीती हैं। इस समय उनके हृदय उत्साह और असीम प्रेम से लबरेज होते हैं। न वजूद के प्रश्न होते हैं न संघर्षो का कोई अधिक बड़ा दृश्य उनके समक्ष उन्हें दिखाई पड़ता हैं। अपने पिता के घर में सामान्य सी जीवन शैली में जीती रही हैं ये सामान्य लड़कियां। घर घर खेलते हुए, दूल्हा दुल्हन की शादीयां करते हुए। अपने हाथ पीले होने तक की रस्मों तक ये ऐसी ही रहती हैं। मैं इन्हें पापा की परी तो बिल्कुल नहीं मानती। क्यों कि यदि परी होती तो बे मौत नहीं मरती। खैर, कहना ये है कि स्त्री के अपने घर नहीं होते,स्त्रियां जन्म से यौवनावस्था तक पिता भाई के घर में घर घर खेलती हैं, वे नहीं उस समय से शादी के थोड़े दिन पूर्व तक अनभिज्ञ होती हैं इस बात से कि वे घर घर जिस घर में खेलती हैं वह घर वे दरो दीवार, वो दहलीज़, वो आँगन उनमें से उनका कुछ भी नहीं,एक नकारात्मक सोच समाज उन्हें अवश्य दे देता है कि लड़की पराया धन हैं उन्हें इस बात की भनक तक कोई नहीं लगने देता कि इस धन को जैसे मायके में जमा किया गया है उसे अगले घर अर्थात ससुराल में ख़र्च किया जायेगा। जहाँ भावनाएँ, आँसू, वेदना, शरीर और जीवनन्त तक वे अपना सब ख़र्च करेंगी मरने तक उनके पास बस बचेगी एक खोटे सिक्के सी पाँच पैसे की लाचारी, एकाकीपन जिसे उनकी ज़िंदगी की गुल्ल्क से कोई नहीं लेना पंसद करेगा।

ये अनजान संवेदन स्त्री दोनों घरों को अपना मानकर रहती हैं दोनों घरों की लाज के सेतु बनकर रिश्ते मजबूत करती हैं। लेकिन घर उनका नहीं एक पिता के बाद, भाई का घर और दूसरा पति के बाद बेटों को घर कहलाता है। ऐसे में भी स्त्री ने इन रिश्तों के मोहपाश में कभी अपने घर की परिकल्पना नहीं कर पाती। दुःख और वेदनात्मक स्थिति में भी यही समझाया जाता है “बेटी अब यही तेरा घर है।” अस्पष्ट रुप से मायके में जमकर बैठने का कोई अधिकार उसे नहीं, जिसे वह बचपन से सबसे अधिक अपना घर मानती रही वह घर असल में उसका नहीं था। “पिता के घर से डोली और पति के घर से अर्थी निकलती है।” लेकिन शोषण से पीड़ित स्त्रियों ने जब अपने घर के अभाव में जाने नदियों में कूदकर दी या किसी वाहन के आगे आई तब समाज क्या कहेगा? ऐसे में अर्थी नहीं निकली समाज की अवधारणा विखंडित हो गईं. मायके से विदाई के बाद वापिस लौटने पर दरवाज़े बंद की ये बेबुनियादी, खोखली परम्पराएं बंद होनी चाहिए। पति के घर पर ये कहना “उसका ही घर है। “ जैसे

झूठे और संवेदनात्मक पासे फेंकने बंद हो। उनको उनका बचपन वाला खेल वाला घर नहीं बल्कि स्थायी निवास मिलना चाहिए। घर घर वह क्यों खेले वह अपने अधिकार के साथ घर में रहे। उसकी ज़िंदगी से जो पुरुष समाज आज तक घर घर खेल उसे इधर से ऊधर धकेलता चला आ रहा है वह उसे समझे और अपने अधिकार के लिए संघर्ष करें और अपना घर ले। आधुनिक भारत में अपने वजूद की लड़ाई लड़नी चाहिए।

राजकुमारी राजसी

असिस्टेंट प्रोफ़ेसर

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